Yoga se hogaa: अष्टाॅग योग
अध्याय 2
अष्टाॅग योग :- स्वास्थ्य विशेषज्ञ दैनिक जीवन में योग के महत्व को बताते है और यह कैसे अपने शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को पूरे दौर में अच्छी तरह से सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है, यह बताते है-
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योग के द्वारा विभिन्न दशाओं को पार करता हुजा व्यक्ति मन और आत्मशक्ति का विकास करता हुआ आत्मज्ञान को प्राप्त होता है।योग एक प्राचीन भारतीय अभ्यास है, जो शरीर, मन और आत्मा को एकसाथ जोड़ने का काम करता है। यह न केवल शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक और आत्मिक दृष्टि से भी व्यक्ति को स्वस्थ और संतुलित बनाता है। योग के नियमित अभ्यास से न केवल शरीर की लचीलापन बढ़ती है, बल्कि यह मानसिक शांति, तनाव मुक्ति और आत्म-ज्ञान को भी बढ़ावा देता है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने योग के द्वारा शरीर मन और प्राण की शुद्धि तथा परमात्मा की प्राप्ति के लिए आठ प्रकार के साधन बतलाए है. जिसे अष्टांग योग कहते हैं। ये हैं
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रात्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
1. यम- सामाजिक व्यवहार में आने वाले नियमों को यम कहते हैं। जैसे किसी को न सताना, यातना न देना, लोभ लालच न करना, चोरी, डकैती न करना अर्थात कोई ऐसा कार्य न करना जिससे मानव समाज के किसी भी अंग का अहित होता है।
2. नियम- इसका संबंध आपके अपने चरित्र से है। व्यक्तिगत चरित्र स्वच्छ और उत्तम होना चाहिये। जब आपका अपना चरित्र ठीक होगा तो आप समाज के एक श्रेष्ठ अंग बन जायेंगे। श्रेष्ठ समाज उत्तम व्यक्तियों से ही मिलकर बनता है।
3. आसन- शरीर के विभिन्न अंगों के विकास के लिये जो यौगिक क्रियाएँ की जाती हैं। उन्हें आसन कहा जाता है।
4. प्राणायाम- यूं तो प्राण विज्ञान बहुत व्यापक विषय है, परन्तु इसके अनेक अंगों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -
प्राण + आयाम अर्थात् प्राणों का आयाम
1 प्राण वायु को सन्तुलित रूप से लेना।
2 नियमित रूप से गहरी और लंबी साँस लेना।
3. प्राण पर सदैव ध्यान रखना।
5. प्रत्याहार-किसी भी वस्तु में लिप्त न होना यानी 'पद्मपत्रमिवाम्भसा' जल में जैसे कमल है रहता जग में वैसे रहना पर वह जल में गीला नहीं होता उसी प्रकार रहना। संसार में आसक्ति अनासक्तभाव से रहना प्रत्याहार है।
6. धारणा-अपने मन को एकाच करना या एकाग्रचित होना ही धारणा है। यह बहुत बड़ी बात है और जीवन में सफलता की कुंजी है।
7 ध्यान - प्रभु का चिन्तन करना और उसके स्मरण में चित्त को लगाना ध्यान कहलाता है।
8. समाधि- समाधि लग जाने पर मनुष्य के अन्तर में स्वतः ही प्रकाश चिखने लगता है।
लाभ- इन आठों प्रक्रियाओं से मानसिक आध्यात्मिक और शरीरिक विकास होता है। और आपका शरीर स्वस्थ होगा। उसके विकार दूर होंगे आपका मन स्वच्छ होगा और आप एक आदर्श व्यक्ति कहलाएँगे।
(1.) यम
यम का अर्थ है व्रत पंचव्रत जिसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह कहते हैं।
क. अहिंसा-
अहिंसा का अर्थ है, हिंसा न होना। मन वचन कर्म से किसी प्राणी को न सताना अहिंसा है।
ख .सत्य-
सत्य का एक अर्थ है झूठ न बोलना।
जिस वार्तालाप और व्यवहार से सबका हित हो वह सत्य है।
ग.अस्तेय-
चोरी न करना। पराई वस्तु को उसके स्वामी से पूछे बिना न लेना अस्तेय है।
घ. ब्रह्मचर्य-
ब्रिह्मचर्य का मूल अर्थ है इन्द्रिय संयम।
शरीर की शक्ति का रक्षण बहह्मचर्य है।
ङ. अपरिग्रह-
अपरिग्रह का एक और नाम है असंग्रह अर्थात् संग्रह न करना। अनावश्यक वस्तुएँ द्रव्य आदि को एकत्र ना करना अपरिग्रह है।
(2.) नियम
क. शौच-
शौच का अर्थ है पवित्र। शरीर और मन दोनों की पवित्रता से वास्तविक अर्थ पूरा होता है।
ख सन्तोष
सम् उपसर्ग पूर्वक "तुष प्रीती धातु से संतोष शब्द बना है।
सन्तोष का अर्थ प्रसन्नता, खुशी, आनन्द है. जैसे भी भली बुरी परिस्थति सामने हो उसमें प्रसन्न रहना, संतोष है। अथवा शरीर से पूर्ण पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त धन से अधिक की लालसा न करना, न्यूनाधिक की प्राप्ति पर शोक और हर्ष न करना।
ग. तप-
भूख प्यास, शीत उष्ण, स्थान तथा आसन के कष्टों को सहन करना। तप का तात्पर्य 'कष्ट सहन' है।
घ. स्वाध्याय-
आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये नित्य नियम से पठन-पाठन स्वाध्याय कहा जाता है।
ङ. ईश्वर प्रणिधान-
प्रणिधान माने हैं धारण करना, स्थापित करना। ईश्वर प्रणिधान अर्थातु ईश्वर को धारण करना, ईश्वर को स्थापित करना। अथवा जितने भी कर्म बुद्धिः वाणी और शरीर से किये जाते हैं, और छोटी से छोटी क्रियामात्र को परमगुरु भगवान् अथवा ईश्वर को अर्पण करते जाना तथा उन कर्मों के फलों को भी भगवान को अर्पण कर देना, ईश्वर प्रणिधान है।
(3.) आसन-
"स्थिरसुखमासनम्"
'आसन' शरीर की वह स्थिति है जिसमें आप अपने शरीर और मन के साथ शान्त स्थिर एवंसुख से रह सकें।
4 प्राणायाम-
"तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ।"
अर्थात आसन की स्थिरता होने पर श्वात्स-प्रश्वास की स्वाभाविक गति का नियमन करना-रोकर सम कर देना 'प्राणायाम" है।
5. प्रत्याहार-
'स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरुपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।"
अपने-अपने विषयों के संग से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के रूप में अवस्थित हो जाना प्रत्याहार है।
6. धारणा-
"दशबन्धः चित्तस्य धारणा"
चित्त को किसी एक विशेष में स्थिर करने का नाम धारणा है।
7. ध्यान-
"तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।"
ध्यान धारण शक्ति का प्रसार है।
8. समाधि-
"तदेवार्थमात्रनिर्मासं स्वरुप-शून्यमिव समाधिः।
केवल ध्येय मात्र की प्रतीति होती है चित्त का अपना स्वरूप शून्य हो जाता है वही (ध्यान ही) समाधि कहलाता है।
(4). शरीर रचना-
जीवधारी के शरीर की रचना पंच महाभूतो (आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी) से हुई है। इन पाँच तत्वों का प्रतिनिधित्व हमारे शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ करती है। अकाश का गुण है शब्द, और शब्द हम कान से सुनते है। वायु का गुण है स्पर्श, स्पर्श हम त्वचा से करते हैं। अग्नि का गुण है प्रकाश, प्रकाश हम आँखों से देखते हैं। जल का गुण है स्वाद स्वाद का अनुभव हमे जिल्ह्या से होता है। पृथ्वी का गुण है गंध, गंध का ज्ञान हमें नासिका से होता है। इसके अलावा पाँच कमेन्द्रियी है (मुख हाथ पार लिग और गुदा)
पाँच ज्ञानेन्द्रियों पौच कर्मेन्द्रियां शरीर के संस्थान ग्रंथियाँ आदि 24 तत्वों से हमारे शरीर का संचालन होता है। इन सब पर शासन करने वाला है मन। मन पर शासन करने वाली बुद्धि। बुद्धि का शासक अहंकार और उसका स्वामी है जीवात्मा।
शरीर में सब संस्थानों का एक अपना मुख्य कार्य है जो उन अंगों को स्वस्थ रखने में सहायक होते है।
1. अस्थि संस्थान -हड्डियों
2 सधि-संस्थान- संधियां
3. मांस संस्थान - मांसपेशियाँ
4. रक्त और रक्त वाहक संस्थान -जैसे हृदय, धमनी और शिरा
5. श्वासोच्छवास संस्थान - जिनसे हम साँस लेते है जैसे नासिका, टेंटुआ (गर्दन) फुफ्फुस आदि।
6. पोषण संस्थान - मुख, दाँत, मेदा. (आमाशय) छोटी बड़ी जाँते. यकृत।
7. मूत्र वाहक संस्थान - गुर्दा, मूत्राशय आदि।
8. वात या नाड़ी संस्थान - मस्तिष्क, नाड़ियाँ, बात सूत्र आदि।
9. विशेष ज्ञानेन्द्रियों - चक्षु, कान, त्वचा, नासिका, और जिल्ह्या।
10. उत्पादक संस्थान - अंड, शिश्न, योनि, गर्भाशय आदि।
इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ग्रंथियों है जो हमारे शरीर में कार्य करती है।
योगासनों का प्रभाव रीढ़ मांस पेशियों, रक्त संस्थान, नाड़ी संस्थान तथा पाचन यंत्रों पर पड़ता है। हृदय, फेफड़े तथा मस्तिष्क से इनका घनिष्ठ संबंध है इसलिए इन सब अंगों के कार्यों एवं रचना की संक्षिप्त व्याख्या, योगशिक्षा के भाग 2 में दी जा रही है।
मेरुदण्ड (रीढ़) -
गर्दन, पीठ और कमर के बीच में रीढ़ होती हैं। इसे 26 भाग होते है। जो आपस में बंधे रहते हैं। हमारे शरीर के स्वास्थ्य और यौवन का सबंध इसी रीढ़ के स्वस्थ होने से है। रीढ़ में जितनी लचक रहेगी ये 26 मोहरें साफ रहेंगे, इनके मुड़ने-तुड़ने में रुकावट नहीं होगी और हमारा स्वास्थ्य और यौवन भी बना रहेगा इन 26 अस्थियों में से 7 गर्दन में 12 पीठ में, 5 कमर में और शेष दो कमर के नीचे गुदाके पास होती है जो नौ के जोड़ से दो बनती है। इन्हीं के मध्य से सिर के पिछले भाग से सुषुम्ना नाड़ी निकल कर गुदाद्वार के पास तक आती है। जो सारे शरीर का नियंत्रण करती है।
मासपेशियाॅ -
अस्थि पिंजर के भीतर शरीर के कार्य को चलाने के लिये कोमल अंग होते हैं। जो सौत्रिक तन्तुओं द्वारा इन अस्थियों से जुड़े रहते हैं। अस्थियों को ढकने तथा प्रथियों और अन्य कोमल अंगों की रक्षा के लिये मांसपेशियों होती हैं। जिनसे शरीर सुडौल बनता है। मांस का यह विशेष गुण है कि यह सिकुड़ कर मोटा और छोटा हो जाता है फिर अपनी पूर्व दशा को प्राप्त कर लेता है। मांस की सिकुड़ने को "संकुचन" और फैलने को "प्रसार" कहते है।
गतियाॅ -
हमारे शरीर में दो प्रकार की गतियों होती है। एक वे जो हमारी इच्छानुसार होती है जैसे चलना, फिरना, बोलना, हाथ उठाना, भोजन चबाना आदि। क्योंकि ये गतियों इच्छा के आधीन होती है इस लिये इन्हें ऐच्छिक गति कहते है।
दूसरी गतियाँ वे हैं जो हमारे बस में नहीं है हम उनको अपनी इच्छा से रोक नहीं सकते और जो रुके उन्हें चला नहीं सकते उन्हें अनैच्छिक गतियों कहते हैं जैसे हृदय की धडकन आंत्रगति, आखों पर प्रकाशीय प्रभाववश गति आदि।
(5) रक्त संस्थान फुफ्फुस और हृदय
हृदय -
मनुष्य का हृदय उसकी बंद मुठ्ठी से बहुत कुछ मिलता जुलता है और वह छाती में बाई तरफ फेफड़ों के बीच में स्थित है जिसे अक्सर तेज दौड़कर आने के बाद तथा घबराहट के समय तेज से घड़कता हुआ अनुभव किया जा सकता है। सारे शरीर को हृदय से रक्त देने तथा उसे वापस हृदय में लाने के लिये दो प्रकार की नलियों होती है जो सारे शरीर में फैली रहती है इनमें से कई तो बाल से भी बारीक होती है रक्त को ले जाने वाली ये नलियों "धमनियों" कहलाती है जबकि अशुद्ध रक्त को हृदय में वापस लाने वाली नालियों 'शिराएँ"
हृदय की दाई ओर दायाँ. और बाई ओर बायाँ फेफड़ा है। हृदय एक थैली के समान आवरण से ढका रहता है। जिसे 'हृदय कोश" कहते हैं। हृदय मांस से निर्मित एक कोष्ठ है, जिसके भीतर रक्त भरा रहता है। यह भीतर से दो भागों में विभक्त रहता है। इन दोनों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता है प्रत्येक द्वार सौत्रिक तन्तु से निर्मित है। और वे नीचे तरफ को ही खुलते हैं। इसलिए रका ऊपर के भाग से नीचे की ओर आा तो सकता है लेकिन ऊपर की ओर जा नहीं सकता इस प्रकार हृदय में चार भाग होते है। हृदय कभी एकजा नहीं रहता। यह कभी सिकुड़ता है तो कभी फैलता है। सिकुड़ने और फैलने से उसकी धारणा शक्ति घटती बढ़ती रहती है। फुफ्फुस रका को शुद्ध करते चाला अंग है इन अंगों में सम्पूर्ण दायाँ भाग अशुद्ध तथा बायी भाग शुद्ध रक्त का लेनदेन करता है। हृदय के कोष्ठ रक्त को आगे की ओर धकेल कर चलने लगते है। और शीघ्र ही पूर्ण दशा को प्राप्त होते है। यह कार्य एक मिनट में 70 से 75 बार होता है। जिसे हम नाड़ी स्पन्दन भी कहते है। छोटे बच्चों में हृदय की धड़कन तेज और बुढ़ापा आने पर यह मन्द पड़ जाती है।
हृदय एक बार में 60 से 80 ग्राम रक्त पम्प करता है। हृदय एक मिनट में 5 से 6 लीटर के लगभग रक्त शरीर को भेजता है यह प्राग जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
(6) श्वासक्रम
वायु का नासिका द्वारा फेफड़ों में जाना और बाहर निकलना श्यासक्रम कहलाता है। श्वास सदा नाक से ही लेना चाहिये मुख से नहीं। नासिका में इस प्रकार के यंत्र है, जो श्वास को पहले छान कर गरम करते है। फिर उसे फेफड़ों में भेजते हैं। इस प्रकार कोई भी विकार नासिकत द्वारा फेफड़ों में नहीं पहुँच सकता जबकि मुख में इस प्रकार के मंत्र नहीं है।
साधारण स्वस्थ मनुष्य एक मिनट में 13 से 20 बार तक श्वास लेता है। बचपन में यह संख्या अधिक होती है। शारीरिक परिश्रम से जैसे व्यायाम, भागना, दौड़ना, खेलकूद आदि में यह संख्या अधिक हो जाती है। खड़े रहने में और दिन के समय में सौस जल्दी-जल्दी चलती हैं ।
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(7) मस्तिष्क-
योगासन एवं प्राणायाम की पूरी व्यवस्था मस्तिष्क तथा नाड़ी मंडल को स्वस्थ व शान्त करने की है। ताकि मस्तिष्क शरीर के अंगों को चला सके और उन पर नियंत्रण रख सके। मस्तिष्क दो भागों में बटा हुआ है। गृहद मस्तिष्क और "लघु मस्तिष्क"।
मस्तिष्क सारे शरीर के कार्य को नाड़ी सूत्रों द्वारा चलाता है। ये नाड़ी सूत्र डोरी के समान परत होते है। सभी नाडियां एक समान नहीं होती है।
ये नाड़ियों मुख्यतः दो प्रकार की होती है जैसे कि वे नाड़ियों जिनका पेशियों की गति से सम्बन्ध होता है। 'चालक नाडियाँ" कहलाती है। और वे नाड़ियों जिनका चेतना या संवेदन से सम्बन्ध है, संवेदनिक नाडियों कहलाती है। लेकिन कुछ नाडियाँ मिश्रित रहती हैं।
(8) सुषुम्ना की रचना -
योग में सुषुम्ना का बड़ा नाम आता है। चक्रों का होना भी इसी पर माना गयाहै। इन चक्रों के खुलने से व्यक्ति पूरी तरह तनाव मुक्त निरोगी व विश्राम की स्थिति में रहता है। सुषुम्ना नाड़ी मंडल का वह भाग है जो कपाल के महाछिद्र से प्रारम्भ होकर रीढ़ में से उसके आखिरी मोहरे से ऊपर वाले मोहरे तक आता है। सुषुम्ना कुछ बेलनाकार और रस्सी की सी होती है। इसका पिछला भाग मध्य रेखा में दबा रहता है। इन नाडियों के बाएँ भाग को इडानाडी मंडल तथा दाएँ भाग को "पिंगला नाड़ी" मंडल कहते हैं। इनका सीधा संबंध नासिका की इडा (चन्द्र नाडी) पिंगला (सूर्य नाड़ी) से होता है।
(9)पाचन तंत्र -
शरीर में अनेक क्रियाएँ चलती रहती है। जिसके लिये ऊर्जा की आवश्यकता होती है। तथा क्रियाओं के संचालन में कई कोशिकाएँ या ऊतक टूट-फूट जाते है। अतः इनके निर्माण व ऊर्जा की पूर्ति के लिए आहार की आवश्यकता होती है।
आहार के निम्न घटक होते हैं।
1. कार्बोहाइड्रेट
2. प्रोट्रीन
3. वसा
4. विटामिन
5. लवण
6 पानी
हम इन घटकों को भोजन के रूप में करते है। उसे उसी रूप में अवशोषित नहीं किया जाता है। अतः भोजन को पाचन की आवश्यकता होती है।
पाचन - जटिल यौगिक को सरल यौगिक में बदलनेकी क्रिया पाचन कहलाता है। हमारे शरीर में भोजन के लिये 10 मी. लम्बी एक मौसल नलिका होती है। जिसे आहार नाल कहते है। इसके निम्न भाग होते है।
मुह ग्रसिका -ग्रास नलिका आमाशय, ग्रहणी, छोटी आत, बडी आंत मलद्वार
मुँह -यह पाचन प्रणाली का मुख्य द्वार है इसमें एक प्रकार का रस स्त्रवित होता है जो मुँह को हमेशा तर रखता हे मुँह में भोजन को चबाने की क्रिया सम्पन्न होती है।
ग्रसनी- मुख गुहा के पीछे का कीप की तरह का भाग होता है। यह 5 से.मी लम्बी होती है। यह ग्रसनी के बाद 26 से मी लम्बी नलीं होती है। जो ग्रीवा से होती हुई कशेरुका तक स्थित है।
आमाशय- ग्रास नलिका का अंतिम भाग एक फूली हुई थेली में खुलता है। जिसे अमाशय कहते हैं। यह आहारनाल की सबसे बड़ी गुहा है यहां भोजन का पाचन होता है। यह 26 से. मी. लम्बा तथा चौडाई 10 से. मी होता है।
ग्रहणी- यह आमाशय के दूसरे छोर से शुरु होता है। यह 52 से मी. लम्बा अर्थ चंद्राकार होता है।
छोटी आँत - यह 61/2 मी लम्बी 2 से.मी चौडी नलिका होती है। इसकी लम्बी नलिका उदर में कुण्डली के समान लिपटी रहती है।
बडी आंत -यह पाचन प्रणाली का अंतिम भाग होता है जो छोटी ऑत को चारों ओर से घर रहती है। इसकी लम्बाई 2 मी. तथा चौड़ाई 7 से.मी. होती है। बढ़ी आंत का अंतिम भाग घूमकर नीचे मलाशय में आता है।
गुदाद्वार -आहार नली का अंतिम छोर शरीर के बाहर की और एक द्वार के रूप में खुलता है। जिससे मल विसर्जित होता है। वह मलद्वार कहलाता है।
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